नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम के तीन साल पूरे होने के बाद भी उत्तर प्रदेश में न तो कोई मजबूत नीति बन सकी और न ही वायु प्रदूषण को लेकर कोई स्पष्ट आंकड़ा उपलब्ध है
लखनऊ। सारी दुनिया में भारत के वायु प्रदूषण के चर्चे हैं। स्थानीय मीडिया से लेकर वैश्विक मीडिया तक सभी जगह भारत में प्रदूषित और दम घोंटू हवा से जुड़ी खबरें अटी पड़ी हैं लेकिन भारत में जिन विभागों पर हवा की गुणवत्ता सुधारने की जिम्मेवारी है, वो ही इसे लेकर गंभीर नहीं हैं। केंद्र सरकार ने जनवरी 2019 में, देश की वायु गुणवत्ता में युद्ध स्तर पर सुधार करने के इरादे से देश का पहला राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) शुरू किया था। जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे, उनमें 132 शहरों में 2017 के स्तर के सापेक्ष 2024 तक PM2.5 के स्तर को 20% से 30% तक कम करना था।
इस कार्यक्रम की घोषणा के तीन साल पूरा होने पर सेन्टर फाॅर रिसर्च आन इनर्जी एण्ड क्लीन एयर (सीआरईए) ने अपनी रिपोर्ट “ट्रेसिंग द हेज़ी एयर: प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑन नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम” में दावा किया है कि प्रगति प्रतिगामी और निम्नस्तरीय है।
उत्तर प्रदेश समुद्री किनारों से अछूता राज्य है। गंगा जमुना के दोआब के क्षेत्र उत्तर प्रदेश में औद्योगिक नियमावली और उसका अनुपालन दोनों ही बहुत ढीला ढाला है। इन कमजोर नीतियों और वायु गुणवत्ता को जांचने के अपूर्ण साधन उत्तर प्रदेश को वायु प्रदूषण के दृष्टिकोण से खराब राज्यों की श्रेणी में रख देता है। यह भारत के सबसे प्रदूषित राज्यों में से एक है। सबसे प्रदूषित राज्यों में शामिल होने के साथ साथ उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य भी है जहां वायु गुणवत्ता सुधारने के लिहाज से महाराष्ट्र के बाद नॉन एटेनमेन्ट शहरों की संख्या सर्वाधिक है। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे शहर हैं जो लगातार पांच वर्षों से नेशनल एंबिएण्ट एयर क्वालिटी स्टैण्डर्ड (एनएएक्यूएस) द्वारा पीएम10/पीएम 2.5 के लिए निर्धारित मानकों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
रिपोर्ट के लेखक सुनील दहिया का कहना है कि “शहरों के लिए निर्धारित राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम और क्लीन एयर एक्शन प्लान बहुत क्रांतिकारी दस्तावेज थे। उम्मीद की जा रही थी कि लगातार खराब होती हवा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए इसे और समावेशी तथा प्रभावी बनाकर लागू किया जाएगा। इसके लिए जरूरी होने पर और अधिक शोध किया जाएगा लेकिन दुर्भाग्य से हर प्रकार की निर्धारित तिथि बीत गयी लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ खास हो नहीं पाया। उत्तर प्रदेश में राज्य और क्षेत्रीय स्तर पर उत्सर्जन सूची, स्रोत विभाजन अध्ययन अब तक पूरे नहीं किए गए है।” सुनील दहिया आगे कहते हैं कि ” अनपरा को छोड़ दें राज्य के बाकी शहरों में वायु प्रदूषण से निपटने के जो एक्शन प्लान बनाये गये हैं, वो एक दूसरे की नकल करके बनाये गये से लगते हैं। ऐसा इसलिए दिखता है क्योंकि वायु प्रदूषण के स्रोतों को ठीक से पता लगाने का प्रयास नहीं किया गया है।”
सीआरईए के द्वारा जो रिपोर्ट तैयार की गयी है उसमें सूचना अधिकार के तहत संबंधित विभागों से ही सूचना प्राप्त करके उसका विश्लेषण किया गया है। इसके अलावा रिपोर्ट में संसदीय कार्यवाही, अन्य संस्थानोंं की रिपोर्ट तथा जन सामान्य में उपलब्ध आंकड़ों का भी इस्तेमाल किया गया है। रिपोर्ट में इस बात को प्रमुखता से उभारा गया है कि एनसीएपी द्वारा शहरों के लिए तय किये गये एक्शन प्लान के अलावा राज्यों के लिए, क्षेत्रों के लिए और सीमा के दोनों ओर के लिए एक्शन प्लान पर कोई अमल नहीं किया गया है।
रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रमुखता से उठाया गया है कि राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के तहत साल 2024 तक 1500 मैनुअल मानिटरिंग स्टेशन लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था लेकिन अब तक केवल 818 स्टेशन ही स्थापित किये जा सके हैं। 2019 में लग चुके 703 स्टेशनोंं से यह मात्र 115 ही ज्यादा है। इतने पर भी खराब स्थिति ये है कि सभी मैनुअल मानिटरिंग स्टेशन में पीएम 2.5 की मानिटरिंग के लिए जो उपकरण लगाने थे उसमें से सिर्फ 261 स्टेशन पर ही पीएम 2.5 निगरानी के लिए ये उपकरण लगाये गये हैं। उत्तर प्रदेश का आंकड़ा देखें तो उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में 82 मैनुअल और 47 कान्टीन्युएस एम्बिएण्ट एयर क्वालिटी मानिटरिंग स्टेशन स्थापित किये गये हैं।
इसके अलावा 132 नाॅन एटेनमेन्ट शहरों में किसी ने भी अपने वहन क्षमता का अध्ययन पूरा नहीं किया है। वहन क्षमता के अध्ययन से ही इस बात का पता चलता है कि कितना उत्सर्जन होने पर भी वह शहर अपनी वायु गुणवत्ता को बरकरार रख सकता है। 93 शहरों में इस अध्ययन के लिए या तो एमओयू साइन हो रहे हैं या फिर अभी प्रस्ताव ही पास होकर रखा हुआ है।
अध्ययन से होनेवाला मूल्यांकन इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि एनसीएपी के तहत वित्तपोषण में क्या विसंगतियां हैं और वायु प्रदूषकों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सार्थक कार्यों के लिए धन के आवंटन और उपयोग के मामले में कहां कहां पारदर्शिता का अभाव है।
रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि डब्ल्यूएचओ के मानकोंं पर अगले एक दशक में सांस लेने लायक वायु गुणवत्ता का स्तर बनाये रखने के लिए जो भी तात्कालिक और दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित किये जाएं उसे पूरा करने के लिए प्राधिकरणों और संबंधित संस्थानों को कानूनी रूप से बाध्याकारी बनाया जाए। रिपोर्ट की अन्य सिफारिशों में यह भी कहा गया है कि सीपीसीबी द्वारा विकसित “प्राण” पोर्टल में वित्तीय वितरण तथा उपयोग को पारदर्शी करने के साथ साथ ट्रैकिंग संकेतकों तक पहुंच को भी सबके लिए सुलभ बनाया जाए।
वायु प्रदूषण हर साल रिकार्ड स्तर पर लोगों की जान ले रहा है। ऐसे में भारत की जनता नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम को ‘एक और सरकारी दस्तावेज’ की तर्ज पर नहीं ले सकती। यह लोगों के स्वास्थ्य और जीवन से जुड़ा मामला है। सुनील दहिया का कहना है कि “अगर कोई वायु प्रदूषण को कम करने के लिए बनाये गये नियमों या कानूनों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई करने के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर सरकारों और विभागों के बीच तेज गति से कार्य करने के लिए समनव्य स्थापित करना होगा।