हिंदी सॉनेट के साधक त्रिलोचन शास्त्री की कविताओं में मेहनतकशों की आवाज

नई दिल्ली, 19 अगस्त (आईएएनएस)। हिंदी साहित्य की प्रगतिशील काव्य धारा के प्रमुख स्तंभ त्रिलोचन शास्त्री का नाम आज भी साहित्य प्रेमियों के दिलों में जीवंत है। उनके रचित सॉनेट को हिंदी साहित्य में अनोखा स्थान प्राप्त है। वहीं, उनकी कविताओं में मेहनतकशों की पीड़ा और असमानता के प्रति गहरी चेतना प्रकट होती है।
त्रिलोचन शास्त्री का जन्म 20 अगस्त, 1917 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कटघरा चिरानी पट्टी में हुआ था। उनका मूल नाम वासुदेव सिंह था। उन्होंने अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए और लाहौर से संस्कृत में ‘शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त करने वाले त्रिलोचन ने न केवल कविता, बल्कि कहानी, गीत, गजल और आलोचना के क्षेत्र में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी।
त्रिलोचन शास्त्री को हिंदी सॉनेट (14 पंक्तियों वाली कविता, विशिष्ट तुकबंदी का पालन करती है) का साधक माना जाता है। उन्होंने इस पाश्चात्य छंद को भारतीय परिवेश में ढालकर लगभग 550 सॉनेट रचे, जो हिंदी साहित्य में एक अनूठा योगदान है। उनकी कविताओं में ग्रामीण जीवन, मेहनतकशों की पीड़ा और सामाजिक असमानताओं की गहरी चेतना झलकती है।
उनका पहला कविता संग्रह ‘धरती’ (1945) प्रकाशित हुआ, जिसे आलोचक गजानन माधव मुक्तिबोध ने सराहा। ‘गुलाब और बुलबुल’, ‘उस जनपद का कवि हूं’ और ‘ताप के ताए हुए दिन’ जैसे संग्रहों ने उन्हें व्यापक ख्याति दिलाई। खासतौर पर ‘ताप के ताए हुए दिन’ के लिए उन्हें 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
त्रिलोचन की रचनाएं सामान्य जन की आवाज थीं। उनकी कविता ‘उस जनपद का कवि हूं’ में वे लिखते हैं, “उस जनपद का कवि हूं, जो भूखा है, नंगा है, अनजान है, कला नहीं जानता, कैसी होती है, क्या है।” उनकी रचनाओं में अवधी और संस्कृत की प्रेरणा के साथ-साथ आधुनिकता की सुंदरता भी थी।
पत्रकारिता के क्षेत्र में भी त्रिलोचन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने ‘हंस’, ‘आज’, ‘प्रभाकर’ और ‘समाज’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। वह 1995 से 2001 तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे और वाराणसी के ज्ञानमंडल प्रकाशन से जुड़कर हिंदी-उर्दू शब्दकोशों के निर्माण में योगदान दिया।
त्रिलोचन बाजारवाद के घोर विरोधी थे और भाषा में प्रयोगधर्मिता को प्रोत्साहित करते थे। उनका मानना था कि भाषा में जितने प्रयोग होंगे, वह उतनी ही समृद्ध होगी। 9 दिसंबर 2007 को गाजियाबाद में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी नई पीढ़ी को प्रेरित करती हैं।
–आईएएनएस
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