स्मृति शेष : बिष्णुपद मुखर्जी और भारतीय चिकित्सा विज्ञान, आज भी खास उनके बेमिसाल योगदान


नई दिल्ली, 29 जुलाई (आईएएनएस)। भारत के चिकित्सा इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं, जिन्होंने विज्ञान को सिर्फ प्रयोगशाला तक सीमित नहीं रखा, बल्कि समाज की सेवा का माध्यम बनाया। बिष्णुपद मुखर्जी, एक ऐसे ही वैज्ञानिक थे, जिनका जीवन औषधीय अनुसंधान, दवा मानकीकरण और चिकित्सा शिक्षा को समर्पित रहा।

1 मार्च 1903 को पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के बैरकपुर में जन्मे मुखर्जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल से प्राप्त की। आगे की पढ़ाई के लिए वे कोलकाता आए, जहां उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज से इंटरमीडिएट और कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से बैचलर ऑफ मेडिसिन की डिग्री हासिल की।

मुखर्जी ने ईडन अस्पताल में ग्रीन-आर्मटिज के अधीन 18 महीने तक काम किया, लेकिन उनका असली मोड़ तब आया जब उन्होंने सर रामनाथ चोपड़ा के मार्गदर्शन में कलकत्ता स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन में शोध कार्य शुरू किया। चोपड़ा ने उन्हें चिकित्सा पद्धति छोड़कर शोध में उतरने के लिए प्रेरित किया, और यही निर्णय भारतीय औषधि विज्ञान के लिए ऐतिहासिक साबित हुआ।

1930 में वे ड्रग इन्क्वायरी कमीशन में सहायक सचिव बने और भारत में दवा मानकीकरण की दिशा में अहम रिपोर्ट तैयार की। 1931 से 1933 तक उन्होंने स्वदेशी वनस्पति दवाओं पर शोध किया। उन्हें रॉकफेलर फाउंडेशन से फेलोशिप मिली, जिसके तहत वे चीन, अमेरिका और जापान गए। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय, म्यूनिख और हैम्पस्टेड में प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों के साथ काम किया।

1947 में उन्हें सेंट्रल ड्रग्स लेबोरेटरी का नेतृत्व सौंपा गया। बाद में उन्होंने चित्तरंजन नेशनल कैंसर रिसर्च सेंटर में निदेशक पद संभाला। सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्होंने बायोकेमिस्ट्री विभाग में विजिटिंग वैज्ञानिक के रूप में योगदान देना जारी रखा। मुखर्जी के नेतृत्व में ‘कोडेक्सा’ दुनिया के सामने आया, जो आज भी वनस्पति दवाओं का प्रमुख संदर्भ ग्रंथ माना जाता है।

उन्होंने उस समिति की अध्यक्षता की जिसने 1966 में ‘भारतीय फार्माकोपिया’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित किया। उनके योगदान को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें पद्मश्री (1962), ग्रिफिथ मेमोरियल पुरस्कार, निल्मोनी ब्रह्मचारी स्वर्ण पदक, आचार्य पिसीरे पदक (1976), एन.के. सेन मेमोरियल पदक (1963), और स्कीब इंटरनेशनल अवॉर्ड (1962) शामिल हैं।

1946 से 1952 तक वे ‘भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ’ के महासचिव रहे और 1962 में इसके अध्यक्ष बने। वे विश्व स्वास्थ्य संगठन की विशेषज्ञ समिति के सदस्य भी रहे, जहां उन्होंने भारत की वैज्ञानिक दृष्टिकोण को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया। 1947 में, उन्हें केंद्रीय औषधि प्रयोगशाला के निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया और तीन साल तक फार्माकोग्नॉसी प्रयोगशाला की दोहरी जिम्मेदारी भी संभाली। इस अवधि के दौरान, जब उन्होंने दवा अनुसंधान के लिए एक विशेष प्रयोगशाला की अवधारणा को आगे बढ़ाया, तो सीएसआईआर ने एडवर्ड मेलनबी की सहायता से केंद्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान (सीडीआरआई), लखनऊ की स्थापना की और मुखर्जी को संस्थान का पहला स्थायी निदेशक नियुक्त किया गया।

30 जुलाई 1979 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनका योगदान आज भी भारतीय चिकित्सा प्रणाली की नींव में जीवित है। उन्होंने विज्ञान को सेवा का माध्यम बनाया और भारत को औषधीय शोध के क्षेत्र में वैश्विक पहचान दिलाई।

–आईएएनएस

वीकेयू/एबीएम


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