श्यामलाल गुप्त जयंती: देश को आजादी मिलने तक नंगे पांव रहने का लिया प्रण और 26 साल तक नहीं पहनी चप्पल


नई दिल्ली, 15 सितंबर (आईएएनएस)। आज स्कूलों, सरकारी आयोजनों और राष्ट्रीय पर्वों पर गाया जाने वाला गीत ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा’ कानों तक पहुंचता है तो दिल देशभक्ति से भर उठता है। यह गीत न केवल तिरंगे की महिमा का गुणगान करता है, बल्कि उसमें राष्ट्र की आत्मा को समाहित करता है। इस गाने को प्रसिद्ध कवि और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ ने लिखा था।

इस गाने ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जन-जन में देशभक्ति की भावना जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज हम श्यामलाल गुप्त के बारे में जानेंगे कि वह ‘नमक आंदोलन’ और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से कैसे जुड़े और आजादी के लिए संघर्ष कर रहे लोगों में राष्ट्र प्रेम की अलख जलाने के लिए झंडा गीत लिखा। श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का जन्म 16 सितंबर 1896 में उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ था।

वह उन साहित्यकारों और देशभक्तों में शामिल हैं, जो ब्रिटिश से भारत को आजाद कराने के लिए कलम से क्रांति लाए। श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ ने कई राष्ट्रभक्ति गीत और कविताएं लिखीं। उनके गीतों में स्वदेश प्रेम, त्याग, बलिदान, और स्वतंत्रता की भावना गहराई से झलकती है।

श्यामलाल गुप्त केवल एक कवि ही नहीं, बल्कि एक समर्पित समाज सुधारक और शिक्षक भी थे। उनके लेखन में सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों के प्रति गहरी चेतना झलकती थी। लेकिन उनके बचपन की एक घटना ने उन्हें गहरा आघात पहुंचाया। 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने हरिगीतिका, सवैया और घनाक्षरी छंदों में रामकथा के बालकांड पर एक पांडुलिपि लिखी। दुर्भाग्यवश, किसी के कहने पर उनके पिता ने यह मानकर उसे कुएं में फिंकवा दिया कि कवि का जीवन हमेशा गरीबी और अभावों से भरा होता है। इस घटना से निराश होकर श्यामलाल गुप्त ने घर छोड़ दिया और आगरा चले गए। बाद में उन्हें वापस लाने के लिए मनाया गया।

श्यामलाल ने दो बार बतौर शिक्षक नौकरी की, लेकिन बॉन्ड भरने की बात आने पर उन्होंने नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वह आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। गणेशशंकर विद्यार्थी और साहित्यकार प्रताप नारायण मिश्र के सानिध्य में वह जनसेवा में जुट गए। ‘नमक आंदोलन’, ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ और ‘असहयोग आंदोलन’ में उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया। इस दौरान उन्हें आठ बार जेल में डाला गया। ब्रिटिश काल में वह कुल छह वर्षों तक राजनीतिक बंदी रहे।

स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के दौरान श्यामलाल मोतीलाल नेहरू के संपर्क में आए। 1921 में श्यामलाल ने स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पांव रहने का व्रत लिया और उसे निभाया भी। इस दौरान वे कविताएं भी लिखते रहे। गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा से उन्होंने मार्च 1924 में सिर्फ एक रात में झंडा गीत ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ लिख दिया।

13 अप्रैल 1924 को पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में ‘जलियांवाला बाग दिवस’ पर कानपुर के फूलबाग में सार्वजनिक रूप से झंडागीत गाया गया और तब से लेकर आज तक ये गीत देशवासियों में जोश भर रहा है।

श्याम लाल की लेखनी कितनी धारदार थी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1924 में श्यामलाल ने एक असामाजिक व्यक्ति पर व्यंग्य रचना की, जिसके लिए उन पर 500 रुपये का जुर्माना कर दिया गया था।

श्याम लाल ‘पार्षद’ सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी रहे। उन्होंने महिला शिक्षा और दहेज विरोध में सक्रिय योगदान किया। विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई।

एक बार की बात है कि श्यामलाल को आकाशवाणी से कविता पाठ के लिए बुलाया गया। प्रसारण से पहले जब अधिकारी ने कविता पढ़ी, जिसके बाद कविता पाठ रोक दिया गया। दरअसल कविता में लिखे कुछ शब्दों से अधिकारी को ऐतराज था। कविता की वह लाइन थी- सिंह यहां पंचानन मरते और स्यार स्वछन्द बिचरते, छक कर गधे खिलाये खाते, घोड़े बस खुजलाये जाते।’ कविता पाठ रोकने से नाराज श्यामलाल फिर कभी आकाशवाणी केंद्र नहीं गए।

स्वतंत्र भारत में श्यामलाल ने 1952 में लाल किले से अपना प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ गाया। 1973 में उन्हें ‘पद्म श्री’ सम्मान से नवाजा गया। 10 अगस्त 1977 में उनका 81 साल की उम्र में निधन हो गया।

–आईएएनएस

वीसी/एएस


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