केरल हाई कोर्ट ने दोहराया कि अदालतें नियमित तरीके से पितृत्व निर्धारित करने के लिए डीएनए परीक्षण का आदेश नहीं दे सकतीं हैं और इस तरह के परीक्षण के आयोजन के लिए मजबूत प्रथम दृष्टया मामला बनाया जाना चाहिए।
जस्टिस सी. जयचंद्रन ने कहा कि अदालतें नियमित तरीके से डीएनए परीक्षण (किसी के माता-पिता का निर्धारण करने में) के लिए आवेदन की अनुमति नहीं दे सकती हैं या पार्टियों को सुबूत निकालने की अनुमति नहीं दे सकती हैं। वह ऐसा तब तक नहीं कर सकतीं जब तक की उनके पक्ष में कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है।
अदालत ने कही ये बात
अदालत ने संपत्ति विवाद में डीएनए परीक्षण की अनुमति देने के ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका को स्वीकार करते हुए यह टिप्पणी की। न्यायालय के अनुसार, ”कोई भी व्यक्ति केवल अपने मामले के समर्थन में साक्ष्य प्राप्त करने के प्रयास में डीएनए परीक्षण की मांग नहीं कर सकता। जब तक आवेदक प्रथम ²ष्टया कोई मजबूत मामला नहीं बनाता, तब तक ऐसे आवेदन को अनुमति नहीं दी जा सकती।”
ये है मामला
एक महिला (वादी) ने 2017 में ट्रायल कोर्ट के समक्ष एक मुकदमा दायर किया था, जिसमें 1980 में मर चुके एक व्यक्ति की भूमि पर दावा किया था। वादी ने दावा किया कि मृत व्यक्ति उसका पिता था और उसने बाद में किसी अन्य महिला से शादी करने से पहले उसकी मां से शादी की थी।
वादी ने दावा किया कि उसका जन्म, मृत व्यक्ति की पहली शादी से हुआ था। इसलिए तर्क दिया कि वह और उसकी मां मृत व्यक्ति की संपत्ति के एक हिस्से की हकदार थीं। मुकदमा मृत व्यक्ति के बेटे से लड़ा गया था, जिसने तर्क दिया कि उसके पिता ने उसकी मां के अलावा किसी और से शादी नहीं की थी।
यह साबित करने के लिए कि वह मृत व्यक्ति की वैध संतान थी, वादी ने भाई-बहन का डीएनए परीक्षण कराने के लिए एक आवेदन दायर किया। एक मजिस्ट्रेट ने उस याचिका की अनुमति दे दी। मजिस्ट्रेट के आदेश को मृत व्यक्ति के बेटे ने चुनौती दी थी, जिसने हाई कोर्ट के समक्ष एक मूल याचिका दायर की थी।