जयंती विशेष : सुभाषचंद्र आर्य ऐसे बने थे हिंदी साहित्य का चमकता सितारा ‘मुद्राराक्षस’


नई दिल्ली, 20 जून (आईएएनएस)। हिंदी साहित्य के एक ऐसे नक्षत्र, जिन्होंने अपनी लेखनी से दलित-बहुजन समाज की आवाज को बुलंद किया, सुभाषचंद्र आर्य उर्फ ‘मुद्राराक्षस’ की जयंती 21 जून को है। उनकी साहित्यिक यात्रा और सामाजिक सरोकारों से भरा जीवन आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करता है।

मुद्राराक्षस मार्क्सवाद, लोहियावाद और अंबेडकरवाद से प्रेरित थे। उन्होंने दलितों और महिलाओं के संघर्षों को अपनी रचनाओं में जगह दी। सामाजिक असमानता, जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ उनकी लेखनी एक तलवार की तरह थी।

उन्हें संगीत नाटक अकादमी, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण और शूद्राचार्य सम्मान जैसे पुरस्कार मिले।

सुभाषचंद्र आर्य का जन्म 21 जून 1933 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के पास बेहटा गांव में हुआ था। उनके पिता शिवचरण लाल गुप्ता, एक वयोवृद्ध गायक, अभिनेता और निर्देशक थे, जिनसे उन्हें थिएटर और साहित्य की प्रेरणा मिली।

बचपन में सुभाष का नाम स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचंद्र बोस के सम्मान में रखा गया। लेकिन, साहित्य जगत में वह ‘मुद्राराक्षस’ के नाम से अमर हो गए। यह नाम उन्हें उनके शिक्षक और आलोचक डॉ. देवराज ने दिया, जब उन्होंने 1950 के दशक में ‘युगचेतना’ पत्रिका में सुभाष के एक लेख को ‘मुद्राराक्षस’ नाम से छापा था।

इस लेख में सुभाष ने अज्ञेय के ‘तारसप्तक’ को अमेरिकी प्रयोगवादी लेखन की नकल बताकर साहित्य जगत में हलचल मचा दी थी। यहीं से ‘मुद्राराक्षस’ नाम साहित्य प्रेमियों की जुबान पर चढ़ गया।

‘मुद्राराक्षस’ की प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। साल 1943 में वह लखनऊ आए और आगे की पढ़ाई पूरी की। उन्होंने सन् 1950 में 10वीं और फिर डीएवी कॉलेज से 12वीं पास की। इसके बाद लखनऊ विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए करने के बाद साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। लखनऊ के बाद वह कोलकाता पहुंचे, जहां ‘ज्ञानोदय’ पत्रिका के सहायक संपादक बने। वहां राजेंद्र यादव जैसे साहित्यकारों से उनकी दोस्ती ने उनके लेखन को नई दिशा दी।

‘मुद्राराक्षस’ ने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, व्यंग्य, आलोचना और इतिहास जैसे क्षेत्रों में अपनी लेखनी चलाई। उनके 12 उपन्यास, 10 से अधिक नाटक, पांच कहानी संग्रह और तीन व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हुए।

‘नारकीय’, ‘कालातीत’, ‘आला अफसर’ और ‘दंड विधान’ उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। उन्होंने अवधी लोक कला जैसे नौटंकी को भी बढ़ावा दिया। आकाशवाणी में स्क्रिप्ट एडिटर के रूप में काम करते हुए उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर बेबाकी से लिखा।

मार्क्सवाद, लोहियावाद और अंबेडकरवाद से प्रेरित मुद्राराक्षस ने दलितों और महिलाओं के संघर्षों को अपनी रचनाओं में जगह दी। सामाजिक असमानता, जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ उनकी लेखनी एक योद्धा की तरह लड़ी।

लंबी बीमारी के बाद 13 जून 2016 को 82 वर्ष की उम्र में लखनऊ में उनका निधन हो गया। लेकिन, उनकी रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य में जीवंत हैं।

–आईएएनएस

एमटी/एकेजे


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