सुरों की 'मिश्रबानी' : संगीत की अद्भुत शैलियों के जनक, यूनेस्को तक से मिला सम्मान


नई दिल्ली, 16 जुलाई (आईएएनएस)। डॉ. लालमणि मिश्र भारतीय संगीत जगत के ऐसे मनीषी थे, जो अपनी कला के साथ ही अपनी विद्वता के लिए भी पहचाने जाते थे। तंत्री वाद्य के लिए निहित वादन शैली की रचना के लिए उन्हें ‘मिश्रबानी’ कहा गया। वहीं, यूनेस्को से ‘म्यूजिक ऑफ लालमणि मिश्र’ के शीर्षक से उनके विचित्र वीणा वादन का कॉम्पैक्ट डिस्क जारी किया जा चुका है।

उन्होंने अपने जीवनकाल में कई बाल संगीत विद्यालयों की स्थापना की। संगीत की दुनिया में वो इतने प्रख्यात थे कि दुनिया के कोने-कोने से उनके पास छात्र आते थे।

लालमणि मिश्र का जन्म 11 अगस्त 1924 को हुआ था। उनकी माता संगीत शिक्षक थी, जिन्हें अपनी प्रतिभा से प्रभावित करके उन्होंने छोटी उम्र से ही संगीत यात्रा की शुरुआत कर दी थी। उन्होंने पंडित शंकर भट्ट और मुंशी भृगुनाथ लाल से ध्रुपद और धमार की परंपरागत शिक्षा प्राप्त की।

रामपुर सेनी घराना के उस्ताद वजीर खां के शागिर्द उस्ताद मेंहदी हुसैन खान से उन्होंने ‘खयाल’ गायन सीखा। स्वामी प्रमोदानंद से ध्रुपद, भजन और तबला की शिक्षा प्राप्त की। वहीं, उस्ताद अमीर अली खां की देखरेख में अनेक संगीत वाद्यों जैसे सितार, सुरबहार, सरोद, संतूर, जलतरंग, वॉयलिन, तबला आदि में महारत हासिल की। 12 वर्ष की आयु में उन्हें कलकत्ता की शहंशाही रिकॉर्डिंग कंपनी में सहायक संगीत निर्देशक के पद का कार्यभार सौंपा गया। अगले दो सालों के दौरान उन्होंने कई फिल्मों में संगीत दिया। उस्ताद अमीर अली खां के सान्निध्य में उनमें ऑर्केस्ट्रेशन के प्रति रुझान प्राप्त हुआ।

डॉ. लालमणि मिश्र ने संगीत में कई उपाधियां अर्जित की। वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में ‘संगीत एवं ललित कला संकाय’ के डीन और प्रमुख तक रहे।

वह बच्चों को संगीत सिखाने के नए रास्ते ढूंढ रहे थे, वह भी उस समय जब समाज में संगीत को हेय दृष्टि से देखा जाता था। उन्होंने इसी क्रम में कई बाल संगीत विद्यालयों की स्थापना की। विद्यार्थियों की जरूरत के हिसाब से औपचारिक, अनौपचारिक पाठ्यक्रमों में परिवर्तन किया और वाद्य वृंद समिति की स्थापना की। उन्होंने भारतीय संगीत परिषद का गठन करके पहले उच्च शिक्षण का आधार ‘गांधी संगीत महाविद्यालय’ की शुरुआत की।

प्रख्यात नृत्य गुरु पंडित उदय शंकर ने अपनी नृत्य मंडली में उन्हें संगीत निर्देशक के पद पर आमंत्रण दिया, जिसे मिश्र ने सहर्ष स्वीकार किया। उन्होंने मंडली की अभिनव नृत्य प्रस्तुतियों तथा पौराणिक एवं आधुनिक विषयों पर आधारित बैले, ऑपेरा आदि के लिए मनोहारी संगीत रचनाएं की। सन 1951 से 1955 तक भारत के कई नगरों से होता हुआ यह नृत्य मंडली श्रीलंका, इंग्लैंड, फ्रांस, बेल्जियम, अमेरिका, कनाडा आदि का भ्रमण करता रहा।

इस प्रयोगधर्मी नृत्य मंडली के लिए मिश्र का बहु-वाद्य-पारंगत होना तथा आर्केस्ट्रा में रुचि रखना फलदायी सिद्ध हुआ। स्वदेश लौटते ही उन्होंने मीरा ऑपेरा की रचना की, जिसका प्रथम मंचन 1956 में कानपुर में किया गया। इसमें भगवान कृष्ण की मूर्ति में मीरा का विलीन हो जाना, दर्शकों को स्तंभित कर गया।

उन्हें 1956 में कानपुर लौटकर स्वयं द्वारा स्थापित ‘गांधी संगीत महाविद्यालय’ का प्राचार्य पद संभालना पड़ा। उन्होंने कुछ साल बाद 1957 में वाराणसी पहुंचकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में रीडर का पदभार संभाला। उनके निर्देशन में काशी हिंदू विश्वविद्यालय का संगीत एवं ललित कला महाविद्यालय भारतीय शास्त्रीय संगीत शिक्षण का अद्वितीय संस्थान बन गया।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. मिश्र ने पटियाला के उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ खां को सुना। इसके बाद उन्होंने विचित्र वीणा के लिए वादन तकनीक विकसित करने के साथ-साथ भारतीय संगीत वाद्यों के इतिहास तथा विकास क्रम पर अनुसंधान किया। इसे भारतीय ज्ञानपीठ ने पुस्तक रूप में 1973 में ‘भारतीय संगीत वाद्य’ शीर्षक से प्रकाशित किया। पुस्तक में उन्होंने संगीत वाद्यों के उद्भव को तर्कपूर्ण आधार से बताते हुए उनसे जुड़े अनेक भ्रमों का निवारण किया, जो आज भी इन वाद्यों की पहचान, वर्गीकरण तथा उनके आपसी संबंधों को समझने का प्रमुख स्रोत है।

वैदिक संगीत पर शोध करते हुए डॉ. मिश्र ने सामिक स्वर व्यवस्था का रहस्य सुलझाया। उन्होंने सामवेद के इन प्राप्त स्वरों को संरक्षित करने के लिए ‘राग सामेश्वरी’ का निर्माण किया। भरत मुनि द्वारा विधान की गई 22 श्रुतियों को मानव इतिहास में पहली बार निर्मित वाद्य यंत्र श्रुति-वीणा पर एक साथ सुनना संभव हुआ। इसके निर्माण तथा उपयोग की विधि ‘श्रुति वीणा’ में दी गई है, जिसे नरेंद्र प्रिंटिंग वर्क, वाराणसी ने 11 फरवरी 1964 को प्रकाशित किया।

सामेश्वरी के अतिरिक्त उन्होंने कई रागों की रचना की, जैसे श्याम बिहाग, जोग तोड़ी, मधुकली, मधु-भैरव, बालेश्वरी आदि। पूर्ण रूप से तंत्री वाद्यों के लिए निहित वादन शैली की रचना की, जिसके कारण उन्हें ‘मिश्रबानी’ के नाम से जाना जाता है। उनका निधन 17 जुलाई 1979 को हुआ था।

–आईएएनएस

एससीएच/एबीएम


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