मेक इन इंडिया का कमाल: एम्स के नेतृत्व में 'सुपरनोवा' स्टेंट रिट्रीवर का सफल परीक्षण


नई दिल्ली, 13 दिसंबर (आईएएनएस)। हर साल करीब 17 लाख भारतीय स्ट्रोक का शिकार होते हैं, लेकिन महंगे उपकरणों की वजह से ज्यादातर मरीजों तक जीवनरक्षक मैकेनिकल थ्रॉम्बेक्टॉमी (क्लॉट हटाने की प्रक्रिया) नहीं पहुंच पाती। अब दिल्ली के एम्स ने इसी क्षेत्र में इतिहास रच दिया है।

देश का पहला स्वदेशी (मेक इन इंडिया) क्लिनिकल ट्रायल ‘ग्रासरूट’ (ग्रेविटी स्टेंट-रिट्रीवर सिस्टम फॉर रीपरफ्यूजन ऑफ लार्ज वेसल ऑक्लूशन स्ट्रोक ट्रायल) सफल रहा, जिसमें सबसे उन्नत सुपरनोवा स्टेंट रिट्रीवर ने शानदार परिणाम दिखाए।

एम्स के न्यूरोइमेजिंग एंड इंटरवेंशनल न्यूरोरेडियोलॉजी विभाग प्रमुख और ट्रायल के नेशनल प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर डॉ. शैलेश बी. गायकवाड़ ने कहा, “यह ट्रायल भारत में स्ट्रोक ट्रीटमेंट के लिए टर्निंग पॉइंट है।”

ट्रायल के प्रारंभिक नतीजे प्रतिष्ठित जर्नल ऑफ न्यूरोइंटरवेंशनल सर्जरी (जेएनआईएस) में प्रकाशित हुए हैं। यह स्ट्रोक के गंभीर मामलों (लार्ज वेसल ऑक्लूजन) में जीवन रक्षक साबित हो सकता है।

पहले मैकेनिकल थ्रॉम्बेक्टॉमी (क्लॉट हटाने की प्रक्रिया) ट्रायल की सफलता दर काफी ऊंची है। ब्लड फ्लो की बहाली में बेहतरीन परिणाम सामने आए। ब्रेन ब्लीड महज 3.1 फीसदी दिखा और मृत्यु दर 9.4 फीसदी है। 90 दिनों बाद 50 फीसदी मरीजों में फंक्शनल इंडिपेंडेंस दिखा यानी वो अपने काम खुद ही निपटाने लगे थे।

यह उपकरण विदेशी उपकरणों की तुलना में काफी किफायती, जिससे ज्यादा मरीजों तक मैकेनिकल थ्रॉम्बेक्टॉमी (क्लॉट हटाने की प्रक्रिया) पहुंच सकेगी।

मेक इन इंडिया की बड़ी उपलब्धि है। भारत अब ग्लोबल स्ट्रोक केयर में योगदान दे रहा है।

इस साल सीडीएससीओ (सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन) ने डेटा स्वीकार कर इसे भारत में रूटीन यूज के लिए मंजूरी दे दी।

ग्रासरूट इंडिया ट्रायल, ने जानलेवा स्ट्रोक के इलाज में इस उपकरण की सफलता को कंफर्म किया। इसका प्रयोग आठ सेंटर्स में किया गया था। विशेषज्ञों ने कहा कि यह ट्रायल मेक-इन-इंडिया पहल के लिए एक मील का पत्थर है और भारत को एडवांस्ड स्ट्रोक केयर में एक वैश्विक प्लेयर के तौर पर स्थापित करता है।

ट्रायल के ग्लोबल प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर (वैश्विक प्रधान अन्वेषक) डॉ. दिलीप यवगल (यूनिवर्सिटी ऑफ मियामी) ने बताया कि यह डिवाइस सस्ता होने से दक्षिण-पूर्व एशिया में पहले ही 300+ मरीजों का इलाज कर चुका है। अब भारत में सीडीएससीओ की मंजूरी मिलने से यह रूटीन यूज के लिए उपलब्ध होगा।

–आईएएनएस

केआर/


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