भारतीय फिल्मों को ऑस्कर में पहचान मिलने की राह मुश्किल क्यों? किरण राव ने रखी अपनी बात

मुंबई, 21 अक्टूबर (आईएएनएस)। भारतीय सिनेमा को अब 112 साल से ज्यादा हो चुके हैं। इतने लंबे और समृद्ध इतिहास के बावजूद अब तक भारत की कोई फीचर फिल्म ऑस्कर नहीं जीत पाई है। हालांकि इस बार ‘होमबाउंड’ को भारत की ऑफिशियली एंट्री के रूप में भेजा गया है, जिससे उम्मीदें बंधी हैं।
इसी संदर्भ में फिल्ममेकर किरण राव ने आईएएनएस से बातचीत की और भारतीय फिल्मों की वैश्विक पहचान, खासतौर पर ऑस्कर में उन्हें मिलने वाली प्रतिक्रिया को लेकर अपने विचार साझा किए।
किरण राव इन दिनों अपनी फिल्म ‘लापता लेडीज’ की सफलता का जश्न मना रही हैं, जिसे फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में 13 पुरस्कार मिले। यह फिल्म न सिर्फ समीक्षकों की पसंद बनी, बल्कि दर्शकों से भी उसे खूब सराहना मिली। इस मौके पर जब उनसे पूछा गया कि क्या पश्चिमी देशों में भारतीय फिल्मों को लेकर कोई पक्षपात या भेदभाव है, तो उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि वहां कोई जानबूझकर पक्षपात किया जाता है। लेकिन उन्होंने यह भी माना कि वहां की ऑडियंस और वोटर्स हमारे सिनेमा को अपने नजरिए से देखते हैं, जो हमसे अलग होता है।
आईएएनएस से बात करते हुए किरण राव ने कहा, “ऑस्कर एकेडमी जब किसी फिल्म को पुरस्कृत करती है, तो वह अपने ढांचे, सोच और समझ के आधार पर करती है। कई बार भारतीय फिल्मों में वे चीजें नहीं होती जो एकेडमी के वोटर्स को आकर्षित कर सकें। ऐसा नहीं है कि हमारी फिल्में अच्छी नहीं होतीं, बल्कि मामला इस बात का है कि कई बार उनका स्वाद और हमारी कहानी का अंदाज मेल नहीं खाता।”
किरण राव ने आगे कहा कि भारत में हर तरह की फिल्में बनती हैं, बड़े बजट की कमर्शियल फिल्में भी और सोचने पर मजबूर करने वाली संवेदनशील फिल्में भी। उनका विश्वास है कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब भारत की कोई फिल्म ऑस्कर में जीत हासिल करेगी और पूरे देश को गर्व महसूस होगा।
उन्होंने ‘होमबाउंड’ फिल्म को लेकर खास उम्मीद जताई। उन्होंने कहा, ”यह फिल्म एक अच्छा चुनाव है और इसके जरिए शायद भारतीय सिनेमा को वह वैश्विक पहचान मिल सके जिसकी हम लंबे समय से प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऑस्कर की दुनिया सिर्फ फिल्म की गुणवत्ता पर नहीं टिकती, बल्कि उसके पीछे एक पूरा इकोसिस्टम होता है, जिसमें फिल्म का प्रचार, वितरण और सही प्लेटफॉर्म तक पहुंचाना भी शामिल होता है।”
आईएएनएस संग बातचीत में किरण राव ने कहा, ”भारत में फिल्में ऑस्कर जीतने के मकसद से नहीं बनतीं। यहां के निर्माता-निर्देशक फिल्में अपने दर्शकों के लिए और अपनी बात कहने के लिए बनाते हैं। वे सामाजिक मुद्दों, मानवीय भावनाओं और भारतीय जीवन को केंद्र में रखकर काम करते हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए जरूरी रणनीति और मार्केटिंग की जानकारी हमारे पास अक्सर कम होती है।”
बातचीत के आखिर में उन्होंने कहा कि किसी भी फिल्म को अंतरराष्ट्रीय पहचान तभी मिलती है जब वहां की ऑडियंस उसे सहज रूप से अपनाती है। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए बताया कि उनकी फिल्म को जापान की एक अंतरराष्ट्रीय अकादमी से सम्मान मिला, जो उनके लिए बेहद आश्चर्यजनक और खुशी की बात थी। इससे यह समझ आता है कि आपकी फिल्म भले ही वहां बड़ी कमाई न करे, लेकिन अगर उसमें दम है, तो उसकी सराहना जरूर होती है।
–आईएएनएस
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