अजीत राम वर्मा : क्रिस्टल साइंस में बढ़ाया भारत का गौरव, एक सलाह ने बदल दी थी जिंदगी


नई दिल्ली, 19 सितंबर (आईएएनएस)। यह कहानी है अजीत राम वर्मा की, जो क्रिस्टल विज्ञान की दुनिया में भारत की एक चमकती प्रतिभा थे। परिवार का रेलवे से रिश्ता रहा। शुरुआत दो पीढ़ी पहले यानी दादा के दौर से हो चुकी थी। उनके परिवार ने पंजाब छोड़कर उत्तर प्रदेश आया था। अजीत वर्मा के पिता हंसराज वर्मा भी रेलवे में थे। हालांकि अजीत की नियति उन्हें रेलवे की जगह ऐसे क्षेत्र में लाई, जहां भारत को उसके इतिहास का एक बेजोड़ वैज्ञानिक मिला।

अजीत राम वर्मा का जन्म 21 सितंबर 1921 को हुआ था। हालांकि, वे अक्सर मजाकिया अंदाज में कहते थे कि उनका जन्म 23 सितंबर को हुआ था, यानी विषुव दिवस पर, जब दिन और रात बराबर होते हैं।

उनके पिता हंसराज वर्मा रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। वे न सिर्फ एक प्रतिबद्ध कर्मचारी थे, बल्कि जड़ी-बूटियों और ज्योतिष में भी गहरी पकड़ रखते थे। मां रानी देवी का प्रभाव अजीत राम वर्मा के जीवन पर गहरा रहा।

प्रारंभिक शिक्षा प्रतापगढ़ के एक ऐसे स्कूल से हुई, जिसे मान्यता हासिल नहीं थी। इस कारण उनके पिता ने उन्हें अपने एक सहायक के साथ इलाहाबाद भेजा। वहां एक मान्यता प्राप्त विद्यालय में उनका दाखिला हुआ और रेलवे कर्मचारी के परिवार में उनका ठहराव हुआ।

इसके बाद उन्होंने मेरठ कैंट के सीएबी हायर सेकेंडरी स्कूल से हाई स्कूल की पढ़ाई की। विश्वविद्यालय स्तर की पूरी शिक्षा उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की, जहां वे फिजिक्स के छात्र रहे। एम.एससी (फिजिक्स) में वे प्रथम स्थान पर रहे। कुछ समय के लिए उन्होंने प्रोफेसर कृष्णन के साथ मिलकर अल्ट्रा-वायलेट तरंग क्षेत्र में क्रिस्टलों के प्रतिबिंब स्पेक्ट्रा पर शोध भी किया।

उनके पिता चाहते थे कि स्नातक होने के बाद वे रेलवे में नौकरी करें, क्योंकि उनकी लगातार प्रथम श्रेणी की शैक्षणिक उपलब्धियां थीं और इससे उन्हें सम्मानजनक पद मिल सकता था।

अजीत राम वर्मा के जीवन पर आधारित इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी के लेख के अनुसार, रेलवे बोर्ड के पूर्व सदस्य और प्रसिद्ध लोकप्रिय विज्ञान लेखक जगजीत सिंह ने याद किया कि एक बार रेलवे स्टेशन के निरीक्षण के दौरान, जहां प्रोफेसर वर्मा के पिता स्टेशन मास्टर थे, उनकी मुलाकात युवा अजीत राम से हुई। उनके पिता ने उन्हें जगजीत सिंह से मिलवाया और उनके लिए उपयुक्त नौकरी के लिए आशीर्वाद मांगा। युवा अजीत से थोड़ी बात करने के बाद, जगजीत सिंह ने उनकी आगे की पढ़ाई के प्रति रुचि और उच्च संभावनाओं को पहचाना। उन्होंने सलाह दी कि अजीत राम को इलाहाबाद से मास्टर्स करना चाहिए और फिर अपने करियर के बारे में निर्णय लेना चाहिए।

बस यही सलाह अजीत राम वर्मा की जिंदगी को एक नए मोड़ पर ले आई थी। 1950 में उन्हें ब्रिटिश काउंसिल स्कॉलरशिप मिली और वे शोध के लिए ब्रिटेन चले गए। वर्मा ने लंदन विश्वविद्यालय जाने से पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ समय पढ़ाया।

उन्हें लंदन यूनिवर्सिटी के रॉयल हॉलोवे कॉलेज में प्रोफेसर सैमुअल टोलांस्की के शोध ग्रुप में शामिल होने का मौका मिला, जो हाई-रिजॉल्यूशन ऑप्टिक्स और मल्टीपल बीम इंटरफेरोमेट्री में विख्यात थे।

प्रोफेसर टोलांस्की ने वर्मा को धातु सतहों का अध्ययन करने का सुझाव दिया, जिससे उन्हें दो साल की ब्रिटिश काउंसिल फेलोशिप की अवधि में पीएच.डी. डिग्री प्राप्त हो सकती थी। हालांकि, वर्मा अपने साथ भारत से लाए कुछ क्रिस्टल, जैसे हेमटाइट और सिलिकॉन कार्बाइड, का अध्ययन करना चाहते थे, जिनकी सतहें चमकदार और सपाट थीं। वे इनका अध्ययन प्रोफेसर टोलांस्की की प्रयोगशाला में उपलब्ध उच्च रिजॉल्यूशन ऑप्टिकल तकनीकों से करना चाहते थे। अंततः, प्रोफेसर टोलांस्की ने सहमति दी कि यदि वर्मा इतने इच्छुक हैं, तो वे ‘कुछ समय के लिए अपने क्रिस्टलों के साथ खेल सकते हैं।’

वर्मा सिलिकॉन कार्बाइड क्रिस्टलों से आकर्षित थे, जिनकी सतहें ऑप्टिकली सपाट थीं और बहुत स्थिर मानी जाती थीं। इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी के लेख के अनुसार, प्रोफेसर वर्मा अक्सर इस बात का जिक्र करते थे कि कैथलीन लांसडेल अपनी नोटबुक में क्रिस्टलोग्राफी के जटिल विवरणों को कैसे समझाती थीं। क्रिस्टल के सर्पिल विकास पर अजीत राम वर्मा के शुरुआती काम को नेचर फिजिक्स पोर्टल पर ‘लुकिंग बैक’ अनुभाग के तहत प्रदर्शित किया गया।

वर्मा ने सिलिकॉन कार्बाइड क्रिस्टलों की सतह पर सर्पिल संरचनाएं देखीं, जिनकी स्टेप हाइट्स क्रिस्टल यूनिट सेल के अनुरूप थीं, यह विज्ञान की दुनिया में एक “लैंडमार्क डिस्कवरी” थी।

अजीत राम वर्मा की यह खोज आज भी क्रिस्टल ग्रोथ की थ्योरी में मील का पत्थर मानी जाती है। उन्होंने न सिर्फ भारत को एक नया वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया, बल्कि वे युवा वैज्ञानिकों के लिए भी एक प्रेरणा बने।

वे एक ऐसे वैज्ञानिक थे जिन्होंने पारिवारिक अपेक्षाओं से आगे निकलकर विज्ञान की सेवा को चुना और भारत का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोशन किया। वे लगभग 17 साल राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला (एनपीएल) के निदेशक रहे। 1982 में, उन्हें भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्म भूषण, से सम्मानित किया गया था।

–आईएएनएस

डीसीएच/एएस


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