रामकृष्ण शिंदे : संगीत की धुनों से बुनी जिंदगी, बैले नृत्य के बने बादशाह


नई दिल्ली, 13 सितंबर (आईएएनएस)। 1985 का साल, जब हिन्दी सिनेमा एक चमकते सितारे को हमेशा के लिए खो चुका था। एक ऐसा संगीतकार जिसने अपने संगीत से सिर्फ फिल्मों को नहीं, बल्कि भारतीय बैले को भी नई पहचान दी। हम बात कर रहे हैं रामकृष्ण शिंदे की। एक ऐसा नाम, जो पर्दे के पीछे रहकर भी लाखों दिलों में अपनी धुनों के जरिए गूंजता रहा। उनकी कहानी सिर्फ एक संगीतकार की नहीं, बल्कि एक ऐसे कलाकार की है, जिसने तमाम संघर्षों के बावजूद अपनी कला को कभी मुरझाने नहीं दिया।

1918 में ‘रामनवमी’ के दिन पश्चिमी महाराष्ट्र के मालवण में एक साधारण मराठा परिवार में जन्मे रामकृष्ण के सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ गया और परिवार की जिम्मेदारी उनके मामा और मौसी पर आ गई। वे सब मुंबई के नानाचौक इलाके में रहने आ गए, जहां रामकृष्ण का बचपन मुंबई की गलियों में बीता।

परिवार में संगीत की कोई पृष्ठभूमि नहीं थी, फिर भी इस बच्चे के मन में सुरों की दुनिया ने घर कर लिया था। उन्होंने घर से छिपकर पंडित सीताराम पंत मोदी से गायन और पंडित माधव कुलकर्णी से सितार की शिक्षा लेनी शुरू की। उन दिनों मेलों और नुमाइशों में होने वाले संगीत कार्यक्रमों में वे अक्सर हिस्सा लेते थे। इन्हीं कार्यक्रमों में एक और उभरती हुई प्रतिभा उनके साथ मंच साझा करती थी, जो बाद में ‘स्वर कोकिला’ के नाम से मशहूर हुईं – लता मंगेशकर।

परिवार की आर्थिक स्थिति को देखते हुए, युवा रामकृष्ण ने मुंबई की परेल स्थित डॉन मिल्स में नौकरी शुरू कर दी। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। उनकी धुनें उन्हें मशीनों के शोर से दूर, सुरों की दुनिया में खींच रही थीं। साल 1944 में उनका विवाह नलिनी से हुआ। इसी दौरान वे तबला वादक रमाकांत पार्सेकर और नृत्य-निर्देशक पार्वती कुमार कांबली के संपर्क में आए।

उनके भीतर की कला ने उन्हें यह निर्णय लेने पर मजबूर कर दिया कि अब वह केवल संगीत के लिए जिएंगे। उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और अपना पूरा जीवन संगीत को समर्पित कर दिया। यह एक बड़ा कदम था, जिसमें जोखिम भी था, लेकिन उनकी कला पर उनका भरोसा चट्टान की तरह मजबूत था।

रामकृष्ण शिंदे का करियर सिर्फ हिन्दी सिनेमा तक ही सीमित नहीं था, बल्कि भारतीय बैले के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय था। “इंडियन नेशनल थिएटर” (आईएनटी) के लिए उन्होंने जो बैले-नृत्य संगीत तैयार किए, उससे उन्हें प्रसिद्धि मिली। उनका नाम बैले संगीत का पर्याय बन गया था। उन्होंने अपने जीवनकाल में कुल 27 बैले नृत्यों का संगीत संयोजन किया, जिसने उन्हें इस विधा का बेताज बादशाह बना दिया। उनके संगीत में एक खास जादू था, जो नर्तकों की हर भावना को सुरों में पिरो देता था।

उनकी कर्णप्रिय धुनों का जादू जल्द ही फिल्मी दुनिया तक पहुंच गया। उन्हें 1947 में बनी फिल्म ‘मैनेजर’ में संगीत देने का मौका मिला। यह फिल्म ‘तिवारी प्रोडक्शंस’ के बैनर तले बनी थी और इसके निर्देशक आईपी तिवारी थे। इसी फिल्म से उनका फिल्मी सफर शुरू हुआ। उसी साल उन्हें एक और फिल्म ‘बिहारी’ में भी संगीत देने का अवसर मिला। हालांकि, इस फिल्म में वे अकेले संगीतकार नहीं थे, नरेश भट्टाचार्य भी उनके साथ थे।

रामकृष्ण शिंदे ने 1966 में मराठी फिल्म ‘तोचि साधू ओलाखावा’ और 1970 में ‘आई आहे शेतात’ जैसी मराठी फिल्मों में भी संगीत दिया, जिनका निर्माण भी उन्होंने ही किया था। फिल्मों की सफलता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण उनके लिए संगीत की गुणवत्ता थी। उनकी बनाई धुनें आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में बसती हैं।

रामकृष्ण शिंदे का नाम भले ही बड़ी व्यावसायिक सफलताओं से न जुड़ा हो, लेकिन उनकी कला ने कई फिल्मों को एक विशेष पहचान दी। मैनेजर (1947), बिहारी, किसकी जीत, गौना, खौफनाक जंगल, पुलिस स्टेशन और कैप्टन इंडिया प्रमुख फिल्मों की लिस्ट है, जिसके लिए उन्होंने संगीत तैयार किया।

14 सितंबर, 1985 को उनका निधन हो गया। तब तक वे 67 वर्ष की आयु में भी अपनी रचनात्मकता के शिखर पर थे। उस समय वे दो महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे, जिसमें राजा ढाले के बैले ‘चाण्डालिका’ और दूरदर्शन के लिए अजित सिन्हा के बैले ‘ऋतुचक्र’ शामिल था।

–आईएएनएस

वीकेयू/जीकेटी


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