नई दिल्ली, 10 अक्टूबर (आईएएनएस)। “मेरा जीवन भारत को अर्पित है, मैं यहीं रहूंगी और यहीं मर जाऊंगी।” ये शब्द थे स्वामी विवेकानंद की सहयोगी और समाज सेविका सिस्टर निवेदिता के। भले ही उनका जन्म भारत में नहीं हुआ हो, लेकिन जब उन्होंने हिंदुस्तान की संस्कृति और परंपराओं के बारे में जाना तो वे यहीं की होकर रह गईं।
मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल उर्फ भगिनी निवेदिता का जन्म 28 अक्टूबर 1867 को आयरलैंड के काउंटी टाइरोन में हुआ था। जब वह दस साल की थी तो उनके पिता की मृत्यु हो गई। हालांकि, वे मां और दो भाई-बहनों के साथ आयरलैंड में अपने दादा के घर लौट आई। बताया जाता है कि उनकी पढ़ाई के साथ-साथ कला और संगीत में भी रूचि थी, लेकिन उन्होंने आगे चलकर शिक्षा को अपना पेशा बनाया।
नोबेल के जीवन में निर्णायक मोड़ साल 1895 में आया। जब वे इसी साल पहली बार स्वामी विवेकानंद से लंदन में मिली थीं। नोबेल उनसे मिलकर इतनी प्रभावित हुईं कि वे अपना वतन छोड़कर तीन साल बाद भारत आ गईं। इसके बाद 25 मार्च 1898 को स्वामी विवेकानंद ने मार्गरेट को दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया। स्वामी विवेकानंद ने उनका नाम ‘निवेदिता’ रखा और उनसे भगवान बुद्ध के पथ पर चलने को कहा।
साल 1898 में उन्होंने कोलकाता में ‘निवेदिता बालिका विद्यालय’ की स्थापना की। इस स्कूल का उद्घाटन विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस की जीवनसंगिनी मां शारदा ने किया था। सिस्टर निवेदिता पर मां शारदा का गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने मां शारदा के साथ काफी समय बिताया।
उन्होंने साल 1899 में कोलकाता में आए प्लेग महामारी के दौरान मरीजों की सेवा की। इतना ही नहीं, उन्होंने रामकृष्ण मिशन को मदद दिलाने के लिए इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका समेत कई देशों की यात्रा भी की। इसके बाद साल 1905 में बनारस में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भी उन्होंने हिस्सा लिया।
भारतीय कला के पुनरुद्धार से निवेदिता बहुत गहरे रूप से जुड़ी थीं और इसे वे राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का अभिन्न हिस्सा मानती थीं। निवेदिता ने कभी किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया, लेकिन उन्होंने ब्रिटिश अत्याचारों का गलत बताया। सिस्टर निवेदिता का 44 साल की उम्र में 13 अक्टूबर 1911 को निधन हो गया।
–आईएएनएस
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