जीपी सिप्पी जिनके 'शोले' का 'अंदाज' ऐसा कि पचास कोस ही नहीं हजारों मील तक बढ़ी 'शान'

जीपी सिप्पी जिनके 'शोले' का 'अंदाज' ऐसा कि पचास कोस ही नहीं हजारों मील तक बढ़ी 'शान'

नई दिल्ली, 14 सितंबर (आईएएनएस)। पाकिस्तान के कराची से मायानगरी में एक शख्स परिवार समेत आया। वकालत की डिग्री के साथ। जहीन शख्स। बिजनेस करना बखूबी जानता था बस फिर क्या था अपनी जमीनों पर बनाने लगा फ्लैट। उस दौर में लीक से हटके सोच। जनाब ये तो शुरुआत भर थी। शख्स ने अपनी जिंदगी में कई खूबसूरत एक्सपेरिमेंट किए। एक फली मिस्त्री साहब थे उनसे दोस्ती गांठी तो फिल्म बनाने का आईडिया भी आया। इस एक आईडिया ने उस दौर में बदल दी दुनिया और बना डाली फिल्म ‘सजा’। एक्टर भी धाकड़ चुने द एवरग्रीन स्टार देव आनंद और नशीली आंखों वाली निम्मी। फिल्म चल पड़ी और इस तरह गोपालदास परमानंद सिपाहीमलानी यानि जीपी सिप्पी की फिल्मी गाड़ी ने भी रफ्तार पकड़ ली।

एक बाद एक ऐसी फिल्में जो समय से आगे की सोचती थीं। हिंदी फिल्मों में पहली बार गेवाकलर का इस्तेमाल किया गया 1953 में आई शहंशाह में। उस समय के जाने माने हीरो रंजन और हिरोइन थीं कामिनी कौशल। प्रयोग लोगों को काफी पसंद भी आया। देश की तीसरी फुल लेंथ रंगीन फिल्म। इस लीक से हटकर चलने वाले शख्स की 14 सितंबर को जयंती है।

कुछ फिल्में भी सिप्पी साहब ने डायरेक्ट की जैसे 1955 की मरीन ड्राइव, 1959 की भाई बहन, 1961 में आई मिस्टर इंडिया। कुछ एक्टिंग भी की। भाई बहन में तो जेपी सिप्पी साहब अपने साहिबजादे रमेश के साथ भी दिखे।

वक्त बिता, साल बिता और उनके इस सफर में बेटे रमेश सिप्पी भी शामिल हो गए। वो निर्देशन करते थे और जेपी सिप्पी साहब प्रोड्यूस। विधवा विवाह पर बनी अंजाम, तो फुल टू एंटरटेनर सीता और गीता भी हिंदी सिने जगत में मील का पत्थर साबित हुईं।

साल बीते और बाप बेटे की इस जोड़ी के जीवन से जुड़ा बेहतरीन साल 1975। कई अद्भुत और बड़े प्रयोग हुए। लीक से हटकर एक फिल्म बनाई नाम था ‘शोले’। कल्ट फिल्म। डाकुओं पर बनी फिल्म पहले भी कई बन चुकी थी लेकिन ये तो सिप्पी फैमिली की थी। कुछ तो हटकर होना था। तो हुआ। स्टोरी, लोकेशन , एक्टर्स सब लाजवाब। भारतीय सिनेमा को एक नया डाकू भी फिल्म ने दिया। वो था ‘गब्बर’ अमजद खान। इस मूवी का एक-एक किरदार लोगों के दिलों में छा गया। सलीम जावेद की कसी हुई पटकथा ने गजब का जादू किया। उस जमाने में सबसे महंगी फिल्म तैयार हुई। बजट 3 करोड़ का था।

ये सब तो हुआ ही लेकिन इसके साथ एक और नायाब चीज हुई। सिप्पी साहब ने कुछ ऐसा हिंदी सिनेमा को दिया जो तकनीक के मामले में नया था। 70 एमएम का नाम हमने सुना और बड़े पर्दे पर स्टीरियोफोनिक आवाज का लाजवाब कॉम्बिनेशन एक अलग ही माहौल सिनेमाघर में क्रिएट कर गया।

2007 में 25 दिसंबर को जब जीपी सिप्पी साहब का इंतकाल तब वो 93 बरस के थे। आखिरी फिल्म थी हमेशा। उन्हें अपने काम से प्यार और सिने इंडस्ट्री से बेहद प्यार था इसलिए कहते थे देयर इज नो बिजनेस लाइक फिल्म बिजनेस।

चलते चलते उनके सिपाहीमलानी से सिप्पी बनने की! तो कहा जाता है कि चूंकि अंग्रेज साहबों को पूरा सरनेम बोलने में दिक्कत होती थी इसलिए टाइटल बन गया सिप्पी और इस तरह गोपालदास परमानंद सिपाहीमलानी हो गए जीपी सिप्पी।

–आईएएनएस

केआर/

E-Magazine