नई दिल्ली, 5 अक्टूबर (आईएएनएस)। सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने गुरुवार को शीर्ष अदालत के 1998 के उस फैसले के खिलाफ किए गए संदर्भ पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, जिसमें सांसदों को संसद या विधानसभाओं में भाषण देने या वोट देने के लिए रिश्वत लेने पर आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट दी गई थी।
संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति ए.एस.बोपन्ना, एम.एम. सुंदरेश, पी.एस. नरसिम्हा, जे.बी. पारदीवाला, संजय कुमार और मनोज मिश्रा ने दोनों पक्षों की दलीलें पूरी होने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया।
सुनवाई के दौरान केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि असली सवाल यह है कि क्या संविधान के तहत दी गई छूट की आड़ में रिश्वतखोरी को संरक्षित किया जा सकता है।
उन्होंने जोर देकर कहा कि विशेषाधिकारों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विधायक स्वतंत्र रूप से और निडर होकर वोट देने और बोलने के अपने अधिकार का प्रयोग करें। उन्होंने कहा कि संविधान पीठ के पास पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई मामले में 1998 के फैसले को वर्गीकृत करने का विकल्प हो सकता है। इन्क्यूरियम के अनुसार यह घोषणा करने के बजाय कि यह एक अच्छा कानून नहीं है, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1998 की वैधानिक योजना को ध्यान में रखने में विफल रहा।
मेहता ने कहा, “जब अपराध सदन के बाहर होता है, तब विशेषाधिकार का दावा करने या प्रतिरक्षा स्थापित करने का कोई सवाल ही नहीं है।”
एक हस्तक्षेपकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने कहा कि एक रिपोर्ट के अनुसार, 40 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं और राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने की सख्त जरूरत है।
उन्होंने कहा कि संसद के किसी सदस्य को संसद या उसकी किसी समिति में उनके द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए वोट के संबंध में छूट देने वाले संविधान के अनुच्छेद 105 की व्याख्या केवल उन कार्यों के रूप में की जानी चाहिए जो विधायी कार्यों को करने के लिए जरूरी हैं। देश के दंडात्मक कानून विधायकों पर उसी तरह लागू होते हैं, जैसे आम नागरिकों पर लागू होते हैं।
केंद्र ने बुधवार को कहा था कि सांसदों/विधायकों को दी गई छूट उन्हें रिश्वत लेने के लिए आपराधिक मुकदमे से नहीं बचाएगी, क्योंकि वोट या भाषण देने के मामले में सौदेबाजी का प्रदर्शन हिस्सा प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि अपराध सदन के बाहर किया गया है।
1998 के अपने फैसले में पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 105 की पृष्ठभूमि में सांसदों को संसद में कही गई किसी भी बात या दिए गए वोट के संबंध में आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट प्राप्त है। इसी तरह की छूट राज्य विधानमंडल के सदस्यों को अनुच्छेद 194(2) द्वारा प्रदान की गई है।
साल 2019 में भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3 न्यायाधीशों की पीठ ने झारखंड मुक्ति मोर्चा की सदस्य सीता सोरेन के सुप्रीम कोर्ट का रुख करने के बाद “उठने वाले सवाल के व्यापक प्रभाव” को ध्यान में रखते हुए इस मुद्दे को एक बड़ी पीठ के पास विचार के लिए भेज दिया। 2014 में अदालत ने 2012 के राज्यसभा चुनावों में एक विशेष उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने के लिए कथित तौर पर रिश्वत लेने के लिए उनके खिलाफ स्थापित आपराधिक आरोपों को रद्द करने की मांग की।
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में 7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ का गठन करने का निर्णय लेते हुए कहा कि अनुच्छेद 105 और 194 का उद्देश्य स्पष्ट रूप से विधायिका के सदस्यों को उन व्यक्तियों के रूप में अलग करना नहीं है, जो सामान्य आवेदन से प्रतिरक्षा के संदर्भ में उच्च विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं।
–आईएएनएस
एसजीके