स्वतंत्रता संग्राम की दो धधकती चिंगारियां : बीना दास की गोलियों से राजगुरु के बलिदान तक

स्वतंत्रता संग्राम की दो धधकती चिंगारियां : बीना दास की गोलियों से राजगुरु के बलिदान तक

नई दिल्ली, 24 अगस्त (आईएएनएस)। साल 1932… 21 साल की एक भारतीय लड़की को कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री मिलनी थी। उस समय एक लड़की का स्नातक तक पहुंचना बड़ी बात थी। डिग्री देने के दिन कलकत्ता विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह का आयोजन हुआ। लेकिन उस लड़की ने अपनी डिग्री लेने की जगह समारोह में बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर गोली चला दी थी। यह लड़की थीं…बीना दास। 24 अगस्त को उसी बीना की जयंती है।

सरफरोशी बीना दास के खून में थी। बीना दास की मां सरला देवी ने कलकत्ता में ‘पुण्य आश्रम’ नाम का एक महिला हॉस्टल चलाया था, जो क्रांतिकारियों के लिए बम और हथियारों के भंडार के रूप में भी काम करता था। इस हॉस्टल में रहने वाले कई लोग क्रांतिकारी थे। इस हॉस्टल में ही बीना की शुरुआत ट्रेनिंग हुई थी। बीना को प्यार से ‘अग्निकन्या’ कहते थे, पिता बेनी माधब दास भी एक प्रोफेसर थे, उन्होंने अपने कई छात्रों को भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया और उनके सबसे प्रसिद्ध छात्र थे….सुभाष चंद्र बोस।

अपने मेमॉयर यानी संस्मरण में बीना बताती हैं सुभाष चंद्र बोस बीना दास के पिता के विचारों से बहुत प्रभावित थे और बोस के राजनीतिक विचारों से कई युवा प्रभावित थे। जिनमें बीना दास भी शामिल थीं। बीना के संस्मरण में एक और रोचक किस्सा है। जब वह स्कूल में पढ़ती थीं। एक दिन ब्रिटिश वायसराय की पत्नी स्कूल आने वाली थी। इसके लिए स्कूल के बच्चों को फूल स्वागत स्वरूप वायसराय की पत्नी के पैरों में बिखेरना था। बीना को यह अपमानजनक लगा। उन्होंने ऐसा नहीं किया और क्लास में एक कोने में बैठकर रोती रहीं।

यह घटना बीना के दिमाग पर अपना असर छोड़ चुकी थी। इसके बाद ही बीना ने कसम खाई थी कि वह मातृभूमि के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर देंगी। एक ऐसी कसम जो बीना के अनुसार उनके कमजोर पलों में हमेशा ताकत देती रही। बीना बाद में बेथुन कॉलेज में पढ़ीं और सुभाष चंद्र बोस उनके छात्र जीवन में एक मार्गदर्शक की भूमिका में बने रहे। ब्रिटिश शासन से अपने देश को आजाद कराने की गहरी इच्छा इस हद तक थी कि यह सवाल गौण था कि देश को आजादी हिंसा से मिलेगी या अहिंसा से।

बीना दास के अलावा उनकी साथी सुहासिनी गांगुली, सिस्टर शांति और नीना दासगुप्ता जैसी वीरांगनाओं का एक ही नारा था- “करेंगे या मरेंगे।” बीना दास के संस्मरण में जिक्र है कि गवर्नर स्टेनली जैक्सन के खिलाफ उनका यह कदम “अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ विरोध दर्ज कराने का एक बड़ा अवसर होगा।”

दास ने गवर्नर को गोली से उड़ाने के लिए साथी महिला क्रांतिकारी कमला दासगुप्ता से हथियार लिए थे। बीना ने बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर पांच गोलियां चलाई थी। हालांकि, गोलियां उनके लक्ष्य से चूक गईं और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन इस घटना ने पूरे देश में सनसनी फैला दी, और बीना दास ब्रिटिश अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक बन गईं।

गवर्नर की हत्या की कोशिश में नौ साल की कठोर सजा के बाद जेल से बाहर आने वाली बीना दास के लिए दुनिया भले ही थोड़ी बदल चुकी थी लेकिन देशभक्ति बिल्कुल वैसी ही थी। जेल से बाहर आकर उन्होंने सुभाष चंद्र से आखिरी बार मुलाकात की, एक ऐसी मुलाकात जिसके बाद उन्होंने सुभाष चंद्र बोस को फिर कभी नहीं देखा।

1940 के दशक की शुरुआत में, स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उनके काम के कारण उन्हें फिर से प्रेसिडेंसी जेल में डाल दिया गया, जहां से उन्हें 1945 में रिहा किया गया। 1947 में, उन्होंने जतीश चंद्र भौमिक से शादी की, जो खुद भी एक क्रांतिकारी थे।

भारत आजाद हो चुका था और देश के लिए मर मिटने के जज्बे वालीं बीना दास का जीवन बगैर किसी लाइमलाइट के गुजरा। 1960 में, भारत सरकार ने सामाजिक कार्य में योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। लेकिन अधिकतर उनके हिस्से में गुमनामी ही आई। कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार, दिसंबर 1986 में, जब उनका देहांत हुआ तब उनका शव ऋषिकेश में मिला था। शव बहुत बुरी हालत में था। इस शव को पहचानने में भी हफ्तों लग गए कि क्या ये 21 साल की उम्र में अंग्रेज गवर्नर पर गोलियां चलाने वाली भारत की महान वीरांगना की बॉडी थी?

24 अगस्त को ही भारत के एक और महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी का जन्म हुआ था। बीना दास ने जहां 21 साल की उम्र में गवर्नर के ऊपर गोलियां चलाई थी तो इस स्वतंत्रता सेनानी ने महज 22 साल की उम्र में भारत की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी। यह थे शिवराम राजगुरु। पूरा नाम था हरि शिवराम राजगुरु जिन्हें भगत सिंह और सुखदेव के साथ 23 मार्च, 1931 को अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दी थी।

राजगुरु के अंदर भी सरफरोशी बचपन से ही ब्रिटिश शासन के अत्याचारों को देखकर आ गई थी। जवानी में वह चंद्रशेखर आजाद से बहुत प्रभावित थे। चंद्रशेखर आजाद के जोशीले शब्द, साहस और भारत के प्रति उनका गहरा प्रेम, राजगुरु को बहुत प्रभावित कर गया था। इसी से प्रेरित होकर उन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एचएसआरए) में शामिल होने का फैसला किया।

राजगुरु एक बेहतरीन निशानेबाज भी थे। 18 दिसंबर 1928 को, लाहौर के फिरोजपुर में राजगुरु ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर पुलिस अधिकारी जे.पी. सॉन्डर्स की हत्या कर दी थी। यह हत्या साइमन कमीशन का विरोध कर रहे लाला लाजपत राय की पुलिस द्वारा की गई चोटों से हुई मौत का बदला थी। राजगुरु बाद में नागपुर में छिप गए। पुणे जाते समय उन्हें आखिरकार गिरफ्तार कर लिया गया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को अपराधी ठहराया गया और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई।

23 मार्च 1931 को, इन तीनों वीर क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। शिवराम राजगुरु मात्र 22 साल की उम्र में शहीद हो गए थे। इन क्रांतिकारियों का जीवन केवल बम और बंदूक के अनियंत्रित इस्तेमाल की भेंट नहीं चढ़ा था बल्कि उन्होंने अंग्रेजों के दमनकारी शासन के खिलाफ बलिदान देकर देश के बाकी युवाओं को झकझोर कर रख दिया था। देशभक्ति की नई लहर पैदा कर दी थी। जैसा कि भगत सिंह ने खुद कहा था, “क्रांति बम और पिस्तौल से नहीं आती। क्रांति की तलवार विचारों की धार पर तेज होती है।”

–आईएएनएस

एएस/केआर

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