भारत ने खोजा ला-इलाज पार्किंसन का उपचार, अमेरिका में क्लिनिकल ट्रायल

भारत ने खोजा ला-इलाज पार्किंसन का उपचार, अमेरिका में क्लिनिकल ट्रायल

नई दिल्ली, 12 नवंबर (आईएएनएस)। पार्किंसंस (पीडी) एक गंभीर रोग है और पूरी दुनिया में 10 मिलियन से अधिक लोग इससे पीड़ित हैं। कंपकंपी, पूरा शरीर या हाथ पांव का काफी ज्यादा कांपना, अकड़न, व्यक्ति की चाल धीमी पड़ जाना या चल न पाना इसके मुख्य दुष्प्रभाव हैं। यह बीमारी रोगियों में गंभीर डिप्रेशन का कारण भी बनती है।

इस रोग के इलाज की कोई दवा बाजार में नहीं है। हालांकि अब भारत ने इस ला-इलाज बीमारी का उपचार ढूंढा है, जिसका क्लिनिकल परीक्षण अमेरिका में शुरू हो गया है।

दिल्ली विश्वविद्यालय ने एक खास प्रोटीन की पहचान की है, जिससे इस बीमारी का उपचार संभव है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डीएस रावत और अमेरिका स्थित मैकलीन अस्पताल के प्रोफेसर किम द्वारा विकसित अणु (कोड एटीएच 399ए) का मानव चरण क्लिनिकल परीक्षण शुरू हो गया है।

पीडी एक न्यूरो-डीजेनेरेटिव विकार है। इसके सामान्य लक्षण कंपकंपी, अकड़न, धीमी गति और चलने में कठिनाई हैं, जो संज्ञानात्मक और व्यवहार संबंधी समस्याओं जैसे अवसाद, चिंता और उदासीनता का कारण बनता है। इस रोग का प्राथमिक कारण मस्तिष्क के मध्य भाग में स्थित सब्सटेंशिया निग्रा में न्यूरॉन कोशिकाओं की मृत्यु है। यह डोपामाइन की कमी का कारण बनता है। कुछ प्रोटीन ऐसे हैं जो डोपामाइन न्यूरॉन्स के अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं।

अब इस गंभीर बीमारी का इलाज ढूंढने की दिशा में प्रोफेसर डीएस रावत के नेतृत्व में शोधकर्ताओ ने मूल रूप से संश्लेषित एक अणु (एटीएच 399ए) का चरण वन नैदानिक परीक्षण शुरू किया है। इस अनुसंधान में मैकलीन अस्पताल, दिल्ली विश्वविद्यालय का सहयोगी है।

प्रोफेसर रावत ने कहा, यह एक लंबी यात्रा रही है। इस प्रकार का कुछ बनाने में बहुत अधिक ऊर्जा लगती है। कभी-कभी आप धैर्य खो देते हैं क्योंकि हमें अनुसंधान अनुदान हासिल करने से लेकर पेटेंट दाखिल करने और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर हस्ताक्षर करने तक अनगिनत बाधाओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन हम केंद्रित थे, और अब हमारा अणु उस स्तर पर है जहां से हम मानवता के लाभ के लिए कुछ उम्मीद कर सकते हैं।

2021 में, दिल्ली विश्वविद्यालय और मैकलीन अस्पताल ने एक समझौता किया कि नूरऑन फार्मास्यूटिकल्स इस अणु को विकसित करने के लिए एक भागीदार के रूप में कार्य करेगा। बाद में हानऑल बायोफार्मा और डेवूंग फार्मास्युटिकल ने नूरऑन फार्मास्यूटिकल्स के साथ हाथ मिलाया और इस चरण 1 नैदानिक परीक्षण में पहले मानव स्वस्थ प्रतिभागी को खुराक देना शुरू किया। चरण 1 का अध्ययन 18 से 80 वर्ष की आयु के स्वस्थ प्रतिभागियों को मौखिक रूप से दिए जाने पर एटीएच399ए की सुरक्षा, सहनशीलता, फार्माकोकाइनेटिक्स और खाद्य प्रभाव का आकलन करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

अध्ययन में एकल आरोही खुराक (एसएडी) और एकाधिक आरोही खुराक (एमएडी) दोनों समूह शामिल होंगे। एटीएच399ए के चरण 1 नैदानिक परीक्षण के प्रारंभिक परिणाम 2024 की दूसरी छमाही में आने की उम्मीद है। पार्किंसंस रिसर्च के लिए माइकल जे फॉक्स फाउंडेशन, एटीएच399ए के चरण 1 नैदानिक परीक्षण का समर्थन करेगा।

शोधकर्ताओं के मुताबिक पशु मॉडल अध्ययनों में इस अणु से पता चला है कि यह महत्वपूर्ण नूर1 एंजाइम को सक्रिय करता है। इससे डोपामाइन न्यूरॉन की मृत्यु रुक जाती है और यह सिन्यूक्लिन प्रोटीन के एकत्रीकरण को भी रोकता है। इसलिए इसमें दो अलग-अलग तंत्र हैं और यह काम हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस द्वारा प्रकाशित किया गया था।

प्रोफेसर रावत का कहना है, “हाल ही में नूरऑन फार्मास्यूटिकल्स से शोध अनुदान मिला, लेकिन चूंकि मैं अभी प्रतिनियुक्ति पर हूं, इसलिए डीयू के नियम हमें पीएचडी छात्रों को लेने की अनुमति नहीं देते हैं।”

प्रोफेसर रावत ने आईएएनएस को बताया कि अमेरिका के साथ यह सहयोगात्मक कार्य 2012 में शुरू हुआ। मैकलीन अस्पताल के प्रोफेसर किम ने पार्किंसंस रोग के उपचार के लिए एक अणु विकसित करने के लिए संभावित सहयोग के लिए प्रोफेसर रावत से संपर्क किया। तब से दोनों टीमों ने अथक परिश्रम किया और दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की टीम द्वारा संश्लेषित 600 से अधिक नए यौगिकों की जांच की।

प्रोफेसर रावत ने कहा कि यह सबसे चुनौतीपूर्ण समस्याओं में से एक है। दुर्बल करने वाले इस विकार का कोई इलाज नहीं है। ऐसा कोई ज्ञात उपचार नहीं है जो इस रोग की प्रगति को धीमा कर सके। उपलब्ध औषधीय उपचार लक्षणों को लक्षित करते हैं और समय के साथ अपनी प्रभावकारिता खो देते हैं, जिनमें से अधिकांश डिस्केनेसिया जैसे गंभीर मोटर दुष्प्रभावों के साथ होते हैं। हालांकि अब उनकी टीम इस इस बीमारी के उपचार की ओर बढ़ रही है।

–आईएएनएस

जीसीबी/एसकेपी

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